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वे शुरु बसंत के दिन थे, फूली सरसों के पीले पीले खेतों से झोकदार खुशबूओं के बोझ उताठी, झूमती बयार के दिन। हल्की – हल्की उष्णता लिये हवा आती और शरीर से टकराते ही बिल्कुल ठंडी हो जाती अंग- अंग में एक शिथिल जैसा कसाव भरने लगता है।
पर वो बचपन के दिन थे, कैशोर्य की रहस्यमयी उलझनों ने तब मन को कहाँ झकझोरा था। धीरे धीरे बड़े झरोखेदार दरवाजे खिड़कियों से दिख रहे आकाश का भरा पूरा हिस्सा भी जब एक छोटा टुकड़ा लगने लगा, तब खुली छत पर हल्की गर्मी की शामें अकेले गुजरने लगीं । धीरे धीरे सब कुछ स्नेहिल और नशीला होता चला गया। उन दिनों हर बात अच्छी लगने लगी थी और हर कुछ सोंधा और मीठा।
धीरे धीरे धूप की तल्खी बढ़ चुकी थी और गर्मियों के बौराये दिन शुरू हो चुके थे। कभी नीम, कभी आम, कभी अमरुद के झुरमुटों तले, कुहनी के बल लेटे या बैठे, उपन्यास पर फिसलती निगाहों को रोककर आकाश की और देखने लगता क्या पता कही सपनों की राजकुमारी का अक्श वहां ही दिख जाये। चांदनी रात में आंगन की खाट पर लेटे, अपने सपनों और मस्तियों के गठ्ठर को संभाले सोचा करता – कहाँ होगी वह ? इस तरह प्रतीक्षा की घडी में एक दिन और जुड़ जाता।
तब हर शै लयबद्ध लगती थी – सुबहें भी, शामें भी, जीवन की गति कभी शोख होती, कभी धीमी, पर सपनों की राजकुमारी फिर भी नहीं आती।
शुरु कालेज के दिनों में घर से निकलते ही अचानक सूनसान हो आई सड़क पर जहाँ कहीं धूप होती और कहीं छाया, अक्सर उस राजकुमारी की प्रतीक्षा में कदम शिथिल हो जाते, पर वहां कोई नहीं आता था। तब थी, हर वक्त डूबती उतराती स्वपनिल आँखों में तैरती लाल गुलाबी अरमानो की छोटी बड़ी सैकड़ों कश्तियाँ, सपनों का एक अनोखा सैलाब ! जाने वह अपने सजीले व्यक्तित्व के साथ कब आ पहुँचे और बिना छुए ही स्पर्श के उन्माद से भर दे, अपनी पलकों के लम्बे सिरों से आपाद मस्तक सहलाकर सराबोर ही कर दे, जिसकी आँखो में ऐसा अज्ञात आग्रह झलकता हो की हँसते हँसते मर जाने का मन सहज ही हो जाये, कौन जाने वह तारों की आकाशगंगा से प्रकाश ही चुरा लाये और फिर सारा कुछ उसमे भिगो डाले और अपने लम्बे खुले बालों के हर पेंच से बांध डाले मुझे। जी भर के मेरी अपनी हो जाये।
बचपन खो गया था, फूलों पत्तों के पीछे उसे बहुत ढूढा, बादलों की परतों के पीछे और खुले क्षितिज के आयामों में भी ढूढ़ता फिरा । अभी उसके खो जाने की कसक दिल में बाकी थी, तभी जीवन ने एक खूबसूरत मोड़ ले लिया -“अब वह मिल ही गयी” मन ने पुकारकर कुछ ऐसा ही कहा।
परन्तु यह क्या ? यह कैसी जीवनचर्या ? सुबहें रोज होती है, किन्तु सपाट सी, बड़े- बड़े दरवाजे खिड़कियों को भड़भड़ा कर खोल दिया जाता है कमरों में सीधा सपाट सा उजाला भर आता, बिना किसी लै अथवा धुन के, सबकुछ एकदम गद्ममय कहीं कोई कविता नहीं। रात के आते ही मन पंछी अपने ही कटे परों पर सर पटकता, मन में एक अव्यक्त से पीड़ा दम तोड़ती और भटकाव लिये मन फिर तलासने लगता वही आग्रह भरी आँख़े ! वह रोमाचित कर देने वाला स्पर्श ! लम्बे बालों के हर पेंच से बांध लेने वाला वह व्यक्तित्व ! हँसी के झनझनाते तार ! आकाशगंगा का वह स्वपनिल प्रकाश ! बार बार प्रश्न करता मन उस शापग्रस्त राजकुमारी की तरह प्रतीक्षा रत था जिसे उसके सपनो का राजकुमार शापमुक्त कराने आ पहुचेगा।
कभी कभी अचानक ही जीवन के किसी मोड़ पर ऐसे कर्मठ व्यक्ति से सुखद मुठभेड़ हो जाती है, जिसे देख स्वयं अपना आत्मविश्वास पुष्ट होता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ और मेरा यह विश्वास और भी दृढ हुआ की मनुष्य स्वयं ही अपने जीवन में अमृत घोलता है और स्वयं ही विष। फिर भी क्या कारण है की चारों ओर हमे सिर्फ वेदना ही वेदना का साम्राज्य दिखायी देता है ? क्या अधिकांश छोटे मोटे दुखों के लिए हम स्वयं दोषी नहीं है ? हम सब जानते है की संसार में दो तरह के मनुष्य होते है, एक वो जो अपनी वेदना को स्वयं घुटक लेते है दुसरे वो जो उसी वेदना को दिन रात चमन कर सबकी सहानभूति बटोरना चाहते है। धीरे धीरे दुखी रहने की, झीकने की, दुसरों को अपने दुखों के लिये दोषी ठहराने की आदत पड़ जाती है।
मैंने अपने इस छोटे से जीवन में अनेक ऐसे पुरुषों को देखा है, जिन्होंने देखते ही देखते स्वयं अपने बसे बसाये सुखी घोसलों को पल भर में उजाड़कर रख दिया। किन्तु ऐसे अविवेकी पुरुष कुछ ही दिन में भोग और ऐश्वर्य से उबकर फिर से उसी उजडे घोसले के लिए तरसने लगते है।
कुछ लोग दुःख को छूत की बीमारी की तरह फैलाते चले जाते है, कुछ अपने सुख से दूसरों को भी सुख देते है, इतना अवश्य जानता हूँ कि जो स्वयं जीवन भर अस्थिर एवं विचिलित रहेगा वह कभी किसी की सच्ची सहानभूति नहीं पा सकता धीरे धीरे लोग उसकी सोहबत से परहेज करने लगेगे “अर्थववेद की यह उक्ति सुख का मूलमंत्र प्रतीत होती है कि- तू तो विद्धवान है वर्चस्वी है, शरीर रक्षक है, अपने आप को पहचान, श्रेष्ठजन तक पहुँच और बराबर वालो से आगे बढ़ जा ” ।
अब तो सपनो कि राजकुमारी का यह हाल है कि कभी किसी कि आँखों में दिखाई देती तो व्यवहार में नहीं होती किसी की आवाज में मौजूद होती तो हँसी में नहीं रहती, किसी के व्यक्तित्व में झलकती तो बुध्दि में नहीं होती, पूरी की पूरी एक ही जगह और एक व्यक्ति में ना पा सकने के कारण उसके अलग अलग और टुकडो में विभक्त होने के कारण मष्तिस्क को एक विक्षिप्तता का आघात लगने लगा, मन कहता हर टुकडे के साथ अलग अलग ही सही पर पूरी शिद्दत के साथ प्यार कर ले।
‘लेकिन हर वक्त चौक्कनी अपनी मानसिकता से त्रस्त मैं सपनों को झूठ और यतार्थ को सच मानने पर बाध्य होता चला गया”।
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